जाने कब ज़िन्दगी से बैर हो गया ,जिस जिस को चाहा वही गैर हो गया
हम तो अपना ग़म रो रो कर सुना रहे थे ,बज़्म में वही शेर मशहूर हो गया.
एक ख्वाबों की बस्ती में जिया करते थे हम भी ,कुछ लव्जो को पिरोया लिखा करते थे हम भी ,
जाने कब उन जज्बातों का होना फजूल हो गया ,जिस जिस को चाहा वही गैर हो गया
जाने कब ज़िन्दगी से ........
आँखों में चमकती सी बात लिए आये थे कुछ खास पोशीदा से जज़्बात लिए आये थे ,
इस शेहेर ने वो ज़ुल्म किया की ये वजूद ही आम हो गया,जिस जिस को चाहा वही गैर हो गया
जाने कब ज़िन्दगी से..............
पर अब भी एक कसक सी बनी रहती है "शब्दा" में कहीं,कि फिर उन गलियों में जाएँ देखें ,
कि क्या कही कोई हमारे नाम पर भी बदनाम हो गया,जिस जिस को चाहा वही गैर हो गया
जाने कब ज़िन्दगी से..............
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